Daanvir Karna ki kahani (कर्ण की कहानी) MYJOKESADDA

March 19, 2020
कर्ण कुंती का पुत्र था| पाण्डु के साथ कुंती का विवाह होने से पहले ही इसका जन्म हो चुका था| लोक-लज्जा के कारण उसने यह भेद किसी को नहीं बताया और चुपचाप एक पिटारी में रखकर उस शिशु को अश्व नाम की नदी में फेंक दिया था| इसके जन्म की कथा बड़ी विचित्र है|


राजा कुंतिभोज ने कुंती को पाल-पोसकर बड़ा किया था| राजा के यहां एक बार महर्षि दुर्वासा आए| कुंती से उनका बड़ा सत्कार किया और जब तक वे ठहरे, उन्हीं की सेवा-सूश्रुषा में रही| इसकी इस श्रद्धा-भक्ति से प्रसन्न होकर महर्षि ने उसे वार दिया कि वह जिस देवता को मंत्र पढ़कर बुलाएगी वही आ जाएगा और उसको संतान भी प्रदान करेगा| कुंती ने नादानी के कारण महर्षि के वरदान की परीक्षा लेने के लिए सूर्य नारायण का आवाहन किया| बीएस उसी क्षण सूर्यदेव वहां आ गए| उन्हीं के सहवास के कारण कुंती के गर्भ से कर्ण का जन्म हुआ| जब पिटारी में रखकर इस शिशु को उसने फेंक दिया, तो वह पिटारी बहती हुई आगे पहुंची| वहां अधिरथ ने कौतूहलवश उसे उठा लिया और खोलकर देख तो उसमें एक जीवित शिशु देखकर वह आश्चर्य करने लगा|

अधिरथ उस शिशु की निरीह अवस्था पर करुणा करके उसे अपने घर ले आया और उसका पालन-पोषण करने लगा| उसने उसे अपनी संतान समझा| बालक के शरीर पर कवच-कुण्डल देखकर उसको और भी अधिक आश्चर्य हुआ और तभी उसे लगा कि वह बालक कोई होनहार राजकुमार है| उसने उसका नाम वसुषेण रखा| वसु का अर्थ है धन| कवच, कुण्डल रूपी धन उसके पास था| विधाता ने ही उसको इसे दिया था, इसलिए उसका नाम वसुषेण उचित ही था|

वसुषेण जब कुछ बड़ा हुआ, तो उसने शास्त्रों का अध्ययन करना आरंभ कर दिया| वह सूर्य का उपासक था| प्रात:काल से लेकर संध्या तक वह सूर्य की उपासना ही किया करता था| दानी भी बहुत बड़ा था| उपासना के समय कोई भी आकर उससे जो कुछ भी मांगता, वह बिना हिचकिचाए उसको दे देता था| अमूल्य से अमूल्य वस्तु से उसको मोह नहीं था| उसका गौरव तो दानवीर कहलाने में था और अपने कृत्यों से उसने वास्तव में यह सिद्ध भी कर दिया कि वह दानवीर था| उसके समान दानी कौरवों और पाण्डवों में और कोई नहीं था| उसका परिचय तो हमें उस समय मिलता है, जब इंद्र ब्राह्मण का वेश धारण करके उसके पास उसकी अमूल्य निधि कवच-कुण्डल मांगने गया था| उस समय कर्ण ने देवराज का स्वागत किया था और सहर्ष अपने कवच-कुण्डल उतारकर दे दिए थे|
दान करते समय अपने हित या अहित विचार वह नहीं करता था| यद्यपि सूर्य भगवान पहले उसे मना कर चुके थे कि वह इन कवच-कुण्डलों को किसी को भी न दे, लेकिन दानवीर कर्ण किसी याचक को निराश करके वापस लौटाना तो जानता ही नहीं था| कर्ण के इस साहस के कारण ही उसका नाम वैकर्तन पड़ा था| यदि इस कवच-कुण्डलों को वह नहीं देता तो कोई भी योद्धा उसे युद्ध में परास्त नहीं कर सकता था| इंद्र ने अर्जुन के हित के लिए ही इनको मांगा था, क्योंकि इनके बिना अर्जुन कभी भी उसे नहीं हरा सकता था| फिर भी उसके इस अद्वितीय गुण से प्रभावित होकर इंद्र ने उसको एक पुरुषघातिनी अमोघ शक्ति दी| उस शक्ति से सामने का योद्धा किसी भी हालत में जीवित नहीं बच सकता था और उसको कर्ण ने अर्जुन के लिए रखा था, लेकिन श्रीकृष्ण ने चाल चली और कर्ण की उस शक्ति को घटोत्कच पर चलवाकर अर्जुन के जीवन पर आए इस खतरे को सदा के लिए मिटा दिया|

घटोत्कच, जो आकाश में विचरण करके कौरवों पर अग्नि की वर्षा कर रहा था और जिसने एक बार तो सारी सेना को पूरी तरह विचलित कर डाला था, शक्ति लगते ही निर्जीव होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा|

धनुर्विद्या में कर्ण अर्जुन के समान ही कुशल था| एक बार जब महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा से कौरव-पाण्डवों की अस्त्र-शिक्षा की परीक्षा के लिए एक समारोह किया गया था, तो अर्जुन ने अपने अस्त्र-शिक्षा के कौशल से सबको चकित कर दिया था| उसने ऐसी-ऐसी क्रियाएं कर दिखाई थीं| कि किसी भी योद्धा की हिम्मत नहीं होती थी कि उसका जवाब दे सके| एक विजेता की तरह के कौशल दिखाकर वह प्रशंसा लूट रहा था| दुर्योधन उस समय हत्प्रभ-सा होकर चुपचाप बैठा था| अर्जुन का-सा कौशल दिखाना उसके सामर्थ्य के भी बाहर था| उसी समय कर्ण वहां आ पहुंचा और उसने मैदान में आकर अर्जुन को ललकारा, "अर्जुन ! जिस कौशल के बल पर तू यहां सबको चकित कर रहा है और सभी से प्रशंसा लूट रहा रहा है, उसे मैं भी करके दिखा सकता हूं|"

यह कहकर उसने धनुष पर बाण चढ़ाकर वही सबकुछ कर दिखाया, जो अर्जुन ने किया था| चारों ओर से कर्ण की जय-जयकार होने लगी| दुर्योधन का चेहरा अर्जुन के प्रतिद्वंद्वी को देखकर खिल उठा| उसने उसे हृदय से लगा दिया| उसने उसे अर्जुन के साथ द्वंद्व युद्ध करने के लिए प्रेरित किया| दुर्योधन की बात मानकर उसने अर्जुन को इसके लिए चुनौती दी| अर्जुन द्वंद्व युद्ध के लिए तैयार हो गया| अब झगड़ा बढ़ने की आशंका थी, इसलिए कृपाचार्य ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि राजकुमार के साथ राजकुमार का ही द्वंद्व युद्ध हो सकता है| चूंकि कर्ण सूत के द्वारा पाले हुए हैं, इसलिए इनके गोत्र, कुल आदि का ठीक-ठीक पता न होने के कारण इनको अर्जुन से द्वंद्व युद्ध करने का अधिकार नहीं है|

बस यह ऐसी समस्या थी, जिसको कर्ण हल नहीं कर सकता था| वह हक्का-बक्का-सा अर्जुन का मुंह तारका रह गया| दुर्योधन को भी इससे धक्का लगा, क्योंकि कर्ण के द्वारा अर्जुन का मान चूर्ण करने की उसकी ही तो योजना थी| जब कर्ण इस दुविधा में पड़ा हुआ आगे अपने पैर नहीं बढ़ा सका तो दुर्योधन ने उसे राजाओं की श्रेणी में लाने के लिए अंग देश का राज्य दे दिया| राजा होने के नाते अब वह अर्जुन या अन्य किसी राजकुमार के साथ युद्ध कर सकता था| वह इसके लिए उतारू भी था, लेकिन संध्या होने के कारण यह वाद-विवाद थम गया और सब अपने-अपने घर चले गए|

बस फिर जीवन में सदा ही कर्ण अर्जुन से प्रतिद्वंद्वी के रूप में मिला| अर्जुन से ही उसकी विशेष रूप से शत्रुता थी| वह उसकी प्रसिद्धि को सह नहीं सकता था| अनेक स्थलों पर वह अर्जुन के सामने आया, लेकिन अपना कुल-गोत्र न बता सकने के कारण उसे सामने से हटना पड़ा| वह सूत-पुत्र कहलाता था, क्योंकि सूत ने ही उसको पाला था| इसी कारण द्रौपदी के स्वयंवर में भी घूमती मछली की आंख बेधने की सामर्थ्य रखते हुए भी उसको अवसर नहीं दिया गया| स्वयं द्रौपदी ने ही सूत-पुत्र कहकर उसका अपमान किया था और उसकी पत्नी बनने से इनकार कर दिया था| सूत-पुत्र को क्षत्रिय कन्या का वरण करने का अधिकार नहीं है - ये शब्द शूल की तरह उसके हृदय में चुभ गए थे और वह लहू के घूंट पीकर अपने स्थान पर आ बैठा था| लेकिन द्रौपदी के प्रति उसकी घृणा इतनी बढ़ गई थी कि भरी सभा में दु:शासन ने द्रौपदी को नंगा करना चाहा था, तो उसने इसका तनिक भी विरोध नहीं किया था, बल्कि द्रौपदी की हंसी उसने लड़ाई थी|
जब दुर्योधन के भाई विकर्ण ने कौरवों के इस घृणित व्यवहार की निंदा की थी तो कर्ण ने उससे कहा था, "विकर्ण ! तुम अपने कुल की हानि करने के लिए पैदा हुए हो| अधर्म-अधर्म तुम पुकार रहे हो, द्रौपदी के साथ जो भी व्यवहार किया जा रहा है वह ठीक है| वह दासी है और दासी के ऊपर स्वामी का पूरा अधिकार होता है|"

यह कहकर उसने द्रौपदी के द्वारा किए अपने अपमान का बदला चुकाया था| उस समय उसका हृदय पत्थर की तरह कठोर हो गया था| जैसे भी बन पड़ा उसने द्रौपदी का अपमान किया| उसे पांच पुरुषों की व्यभिचारिणी स्त्री कहा और हर तरह से उसे धिक्कारा| उस समय प्रतिशोध की आग में जलते हुए उसने उचित-अनुचित का विचार बिलकुल छोड़ दिया| द्रौपदी को नंगी देखने और दिखाने की उसकी इच्छा थी| इससे स्पष्ट होता है कि कर्ण प्रतिशोध की भावना के आगे सत्य, न्याय और धर्म की भावना को पूरी तरह भूल जाता था| यह उसके चरित्र की दुर्बलता ही है|

कर्ण स्वभाव से कुटिल भी था| वह दुर्योधन को इसी प्रकार कुचक्र रचने की सलाह दिया करता था, जैसी शकुनि देता था| जिस समय जुए में हारकर पाण्डव वनवास के लिए चले गए और द्वैत वन में वे अपना समय काट रहे थे, उस समय कर्ण और शकुनि की बातों में आकर ही दुर्योधन अपने परिवार के साथ पाण्डवों को चिढ़ाने के लिए पहुंचा था लेकिन यहां चित्रसेन नामक गंधर्व से इनका सामना हो गया| भीषण युद्ध हुआ| गंधर्व राजा ने अपने पराक्रम से सबको परास्त कर दिया और परिवार सहित सभी को उसने बंदी बना लिया| कर्ण तो अपने प्राण लेकर युद्धस्थल से भाग ही गया था| फिर युधिष्ठिर के कहने और अर्जुन के भी प्रयास करने पर चित्रसेन ने दुर्योधन आदि को मुक्त कर दिया|

कर्ण अहंकारी भी बहुत था| उसे अपने पराक्रम पर बड़ा घमंड था और बार-बार दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए वह कहा करता था कि वह एक क्षण में ही अर्जुन को मार गिराएगा| इसके लिए भगवान परशुराम द्वारा सिखाए हुए अपने अस्त्र-कौशल की दुहाई देता था| यहां तक कि भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य आदि के सामने भी वह अपनी शेखी बघारने से बाज नहीं आता था|

एक दिन पितामह से न रहा गया| उन्होंने इसे फटकारते हुए कहा, "दुरभिमानी कर्ण ! व्यर्थ की बात क्यों किया करता है| खाण्डव दाह के समय श्रीकृष्ण और अर्जुन ने जो वीरता प्रकट की थी, उसको याद करके तुझे लज्जित होना चाहिए| क्या तू श्रीकृष्ण को साधारण व्यक्ति समझता है? वे अपने चक्र से तेरी उस अमोघ शक्ति को खंड-खंड कर देंगे| व्यर्थ दंभ करना एक सच्चे वीर का गुण नहीं है|"

पितामह की यह बात सुनकर कर्ण क्रुद्ध हो उठा और उसने झल्लाकर अपने शस्त्र फेंक दिए और कहा, "पितामह ने सभी के सामने मुझे लज्जित किया है, अब तो इनकी मृत्यु हो जाने पर ही मैं अपना पराक्रम दिखाऊंगा|"

इसी दुराग्रह के कारण जब तक भीष्म पितामह जीवित रहकर युद्ध करते रहे, कर्ण ने युद्ध में हाथ  नहीं बंटाया| जब उसने सुन लिया कि वे धराशायी हो चुके हैं, उस क्षण प्रसन्न होकर वह दुर्योधन के पक्ष में आकर शत्रु से युद्ध करने लगा| गुरु द्रोण के पश्चात कौरव-सेना का तीसरा सेनापति वही था| इस वृत्तांत से यही स्पष्ट होता है कि वह अत्यधिक क्रोधी स्वभाव का था| सदा अहंकार में उसकी बुद्धि डूबी रहती थी और इस कारण बुद्धिमानों की बातें भी बुरी लगती थीं| इसके विपरीत अर्जुन धीर बुद्धि और विनयशील था|

इस सबके होते हुए भी कर्ण अपनी बात का धनी था| जो कुछ भी वचन वह दे देता था, उससे हटना तो वह जानता ही नहीं था| श्रीकृष्ण ने उसे यह बता दिया था कि वह कुंती का ज्येष्ठ पुत्र है और साथ में उन्होंने उससे पांडवों की ओर मिल जाने का आग्रह भी किया था, लेकिन सबकुछ सुनकर भी उसने दुर्योधन के साथ विश्वासघात करना उचित नहीं समझा|

श्रीकृष्ण ने कहा था, "कर्ण ! भाइयों के विरुद्ध लड़कर उनको मारने की कामना करना पाप है, इसलिए तुम कौरवों का साथ छोड़कर पाण्डवों का पक्ष ले लो| युधिष्ठिर तुम्हें अपना अग्रज मानकर अपना जीता हुआ साम्राज्य तुम्हें ही दे देंगे|"

कृष्ण की यह प्रलोभन भरी बातें सुनकर भी कर्ण अपने वचन पर दृढ़ रहा और कहने लगा, "श्रीकृष्ण ! दुर्योधन के साथ विश्वासघात करना सबसे बड़ा पाप है| यदि मैं उसकी मित्रता को तोड़कर पाण्डवों की ओर मिल जाऊंगा, तो सब यही कहेंगे कि कर्ण अर्जुन से डरकर उनकी ओर मिल गया है| फिर मैं ऐसा क्या करूं? मेरी मां ने तो मुझे मारने का सारा प्रबंध कर दिया था| सूत ने ही मुझे उठाया और पाला, इसलिए वे ही मेरे पिता तुल्य हैं| सूतों के साथ मैं कई यज्ञ भी कर चुका हूं और मेरा विवाह संबंध भी सूतों के परिवार में ही हुआ है, फिर मेरा पाण्डवों से क्या संबंध रहा? धृतराष्ट्र के घराने में ही दुर्योधन के आश्रित मैं रहा हूं| और तेरह वर्ष तक मैंने उन्हीं का दिया हुआ राज्य किया है, फिर कैसे उनके साथ विश्वासघात कर दूं? दुर्योधन को मेरे ऊपर पूरा विश्वास है| मेरे कहने से ही तो उसने इस युद्ध को मोल लिया है और अर्जुन के प्रतिद्वंद्वी के रूप में दुर्योधन की आशाएं मेरे ऊपर ही तो लगी हुई हैं| इस परिस्थिति में अपने आश्रयदाता और मित्र दुर्योधन को छोड़कर मैं कभी पाण्डव पक्ष में नहीं मिल सकता|
"फिर यदि एक बार मैं मिल भी गया तो युधिष्ठिर जो राज्य मुझे देगा उसे अपने वचन के अनुसार मुझे दुर्योधन को देना होगा| इससे तो पाण्डवों का सारा प्रयत्न ही निष्फल चला जाएगा| यह सभी कुछ सोच विचारकर मैं निश्चयपूर्वक कहता हूं कि मैं मित्र दुर्योधन का साथ छोड़कर और किसी पक्ष में नहीं मिल सकता, लेकिन हां यह वचन अवश्य देता हूं कि युद्ध में मेरा प्रतिद्वंद्वी केवल अर्जुन ही है| उसके सिवा किसी पाण्डव का वध मैं नहीं करूंगा|"

कर्ण का यह कथन उसके चरित्र की महानता पर प्रकाश डालता है| बात का कितना पक्का था वह दानवीर| दुर्योधन चाहे अधर्मी था, लेकिन उसका तो आश्रयदाता था, फिर वह उसके साथ छल-कपट कैसे कर सकता था? अंत तक उसने दुर्योधन का साथ दिया और अपने आपको एक सच्चा मित्र प्रमाणित कर दिया|

कर्तव्य के प्रति कर्ण पूरी तरह कठोर था| वह युधिष्ठिर तथा अर्जुन की तरह सहृदय नहीं था कि पांडवों के विषय में यह ज्ञात होते ही कि ये उसके भाई हैं, युद्ध करना बंद कर दे| एक बार मन में दृढ़ संकल्प करके उसको पूरी तरह निबाहना ही उसके जीवन का उद्देश्य था| दुर्योधन की सहायता करना उसका कर्तव्य था, इससे पाण्डवों के प्रति जाग्रत हुआ भ्रातृत्व भाव भी उसे विचलित न कर सका और फिर भी अर्जुन के प्रति कठोर और ईर्ष्यापूर्ण दृष्टि उसकी बनी ही रही| यहां तक कि स्वयं माता कुंती ने जाकर कर्ण को अपनी ओर मिलाने की इच्छा प्रकट की थी, लेकिन उस समय भी वह वीर अपने पथ से विचलित नहीं हुआ| यह उसके चरित्र की श्रेष्ठता ही थी| फिर एक बार कृष्ण को वचन देकर अर्जुन के सिवा अन्य किसी पाण्डव की ओर उसने शस्त्र नहीं उठाया| अर्जुन से ही युद्ध करते हुए वह वीरगति को प्राप्त हुआ था|

महाभारत युद्ध में भी उसकी वीरता देखकर स्वयं श्रीकृष्ण उसकी प्रशंसा करने लगे थे| कितनी ही बार वह अर्जुन के रथ को पीछे हटा देता था| जब तक वह सेनापति रहा, अर्जुन बार-बार उसके प्रहारों से विचलित हो उठता था| उसकी समझ में नहीं आता था कि वह कैसे इस परम योद्धा को परास्त करे|

अंत में पूरी तरह निराश होकर उसने कृष्ण की ओर देखा| कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धंस गया था| वह उसे निकालने का प्रयत्न कर रहा था, उसी समय कृष्ण के इशारा करने पर अर्जुन ने अन्याय का आश्रय लेकर उसका वध किया, नहीं तो उस वीर को मारना बहुत कठिन था| फिर यदि उसके हाथ में इंद्र की वह अमोघ शक्ति होती तो फिर उसको कोई भी पराजित नहीं कर सकता था और यह निश्चय था कि वह अर्जुन का वध करके विजय का शंख फूंक देता, लेकिन विधाता की यही गति थी| अमोघशक्ति को वह पहले ही घटोत्कच पर चला चुका था| अब उसके पास विशेष अस्त्र कोई नहीं था| फिर भी बड़ी कठिनाई से अर्जुन उसे मार पाया था| महाभारत में जहां भी उसके पराक्रम का वर्णन आया है, वहां अर्जुन के बराबर ही उसको पराक्रमी माना गया है और था भी वह इतना ही पराक्रमी|

कर्ण के पराक्रम में धब्बा लगाने वाली एक बात यह है कि वह कपटी भी था| वह सदा सत्य और न्याय का ही आश्रय नहीं लेता था| उसने अल्प वयस्क राजकुमार अभिमन्यु का चक्रव्यूह के भीतर औरों के साथ मिलकर वध किया था| उसी ने उसके धनुष को काट गिराया था और फिर उस निहत्थे बालक पर छ: महारथियों ने मिलकर आक्रमण किया था, जिनमें से एक वह भी था| निहत्थे बालक की हत्या करने का अपराध सदा उसके चरित्र के साथ लगा रहेगा| इसीलिए इतना पराक्रमी होने पर भी कर्ण अर्जुन की तरह महापुरष की कोटि में नहीं आ सकता| उसका हृदय कलुषित था|

इस तरह कर्ण के चरित्र पर दृष्टिपात करने से मालूम होता है कि वह किसी दृष्टि से महान था और अपने किन्हीं व्यवहारों के कारण पतित भी था| उसकी महानता उसके दानवीर होने मैं है, उसके दृढ़ संकल्प होने में है, उसके अपने मित्र और आश्रयदाता के विश्वासपात्र होने में है, लेकिन छल और कपटपूर्ण व्यवहार, व्यर्थ का दंभ और क्रोध उसके चरित्र की गरिमा को कम करते हैं|

वह इतना पराक्रमी था कि उसके मरते ही दुर्योधन का सारा धैर्य टूट गया था और अब उसे अपनी पराजय की आशंका निश्चित लगने लगी थी| और वही हुआ भी| कर्ण की मृत्यु के पश्चात कौरव ऐना का विनाश हो गया| स्वयं दुर्योधन भी भीम के द्वारा मार डाला गया| युद्ध में पांडवों को विजय प्राप्त हुई|

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पंचमुखी हनुमान की कहानी – जानिए पंचमुखी क्यो हुए हनुमान?

March 18, 2020
Panchmukhi Hanuman Story – लंका में महा बलशाली मेघनाद के साथ बड़ा ही भीषण युद्ध चला. अंतत: मेघनाद मारा गया। रावण जो अब तक मद में चूर था राम सेना, खास तौर पर लक्ष्मण का पराक्रम सुनकर थोड़ा तनाव में आया।
रावण को कुछ दुःखी देखकर रावण की मां कैकसी ने उसके पाताल में बसे दो भाइयों अहिरावण और महिरावण की याद दिलाई। रावण को याद आया कि यह दोनों तो उसके बचपन के मित्र रहे हैं।
लंका का राजा बनने के बाद उनकी सुध ही नहीं रही थी। रावण यह भली प्रकार जानता था कि अहिरावण व महिरावण तंत्र-मंत्र के महा पंडित, जादू टोने के धनी और मां कामाक्षी के परम भक्त हैं।
रावण ने उन्हें बुला भेजा और कहा कि वह अपने छल बल, कौशल से श्री राम व लक्ष्मण का सफाया कर दे। यह बात दूतों के जरिए विभीषण को पता लग गयी। युद्ध में अहिरावण व महिरावण जैसे परम मायावी के शामिल होने से विभीषण चिंता में पड़ गए।

विभीषण को लगा कि भगवान श्री राम और लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी करनी पड़ेगी. इसके लिए उन्हें सबसे बेहतर लगा कि इसका जिम्मा परम वीर हनुमान जी को सौंप दिया जाए।
राम-लक्ष्मण की कुटिया लंका में सुवेल पर्वत पर बनी थी। हनुमान जी ने भगवान श्री राम की कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा खींच दिया। कोई जादू टोना तंत्र-मंत्र का असर या मायावी राक्षस इसके भीतर नहीं घुस सकता था।
अहिरावण और महिरावण श्री राम और लक्ष्मण को मारने उनकी कुटिया तक पहुंचे पर इस सुरक्षा घेरे के आगे उनकी एक न चली, असफल रहे। ऐसे में उन्होंने एक चाल चली। महिरावण विभीषण का रूप धर के कुटिया में घुस गया।
राम व लक्ष्मण पत्थर की सपाट शिलाओं पर गहरी नींद सो रहे थे। दोनों राक्षसों ने बिना आहट के शिला समेत दोनो भाइयों को उठा लिया और अपने निवास पाताल की और लेकर चल दिए।
विभीषण लगातार सतर्क थे। उन्हें कुछ देर में ही पता चल गया कि कोई अनहोनी घट चुकी है. विभीषण को महिरावण पर शक था, उन्हें राम-लक्ष्मण की जान की चिंता सताने लगी।
विभीषण ने हनुमान जी को महिरावण के बारे में बताते हुए कहा कि वे उसका पीछा करें। लंका में अपने रूप में घूमना राम भक्त हनुमान के लिए ठीक न था सो उन्होंने पक्षी का रूप धारण कर लिया और पक्षी का रूप में ही निकुंभला नगर पहुंच गये।
निकुंभला नगरी में पक्षी रूप धरे हनुमान जी ने कबूतर और कबूतरी को आपस में बतियाते सुना। कबूतर, कबूतरी से कह रहा था कि अब रावण की जीत पक्की है। अहिरावण व महिरावण राम-लक्ष्मण को बलि चढा देंगे। बस सारा युद्ध समाप्त।
कबूतर की बातों से ही बजरंग बली को पता चला कि दोनों राक्षस राम लक्ष्मण को सोते में ही उठाकर कामाक्षी देवी को बलि चढाने पाताल लोक ले गये हैं। हनुमान जी वायु वेग से रसातल की और बढे और तुरंत वहां पहुंचे।
हनुमान जी को रसातल के प्रवेश द्वार पर एक अद्भुत पहरेदार मिला। इसका आधा शरीर वानर का और आधा मछली का था। उसने हनुमान जी को पाताल में प्रवेश से रोक दिया।
द्वारपाल हनुमान जी से बोला कि मुझ को परास्त किए बिना तुम्हारा भीतर जाना असंभव है। दोनों में लड़ाई ठन गयी। हनुमान जी की आशा के विपरीत यह बड़ा ही बलशाली और कुशल योद्धा निकला।
दोनों ही बड़े बलशाली थे। दोनों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ परंतु वह बजरंग बली के आगे न टिक सका। आखिर कार हनुमान जी ने उसे हरा तो दिया पर उस द्वारपाल की प्रशंसा करने से नहीं रह सके।


हनुमान जी ने उस वीर से पूछा कि हे वीर तुम अपना परिचय दो। तुम्हारा स्वरूप भी कुछ ऐसा है कि उससे कौतुहल हो रहा है। उस वीर ने उत्तर दिया- मैं हनुमान का पुत्र हूं और एक मछली से पैदा हुआ हूं। मेरा नाम है मकरध्वज।
हनुमान जी ने यह सुना तो आश्चर्य में पड़ गए। वह वीर की बात सुनने लगे। मकरध्वज ने कहा- लंका दहन के बाद हनुमान जी समुद्र में अपनी अग्नि शांत करने पहुंचे। उनके शरीर से पसीने के रूप में तेज गिरा।
उस समय मेरी मां ने आहार के लिए मुख खोला था। वह तेज मेरी माता ने अपने मुख में ले लिया और गर्भवती हो गई। उसी से मेरा जन्म हुआ है। हनुमान जी ने जब यह सुना तो मकरध्वज को बताया कि वह ही हनुमान हैं।
मकरध्वज ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए और हनुमान जी ने भी अपने बेटे को गले लगा लिया और वहां आने का पूरा कारण बताया। उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि अपने पिता के स्वामी की रक्षा में सहायता करो
मकरध्वज ने हनुमान जी को बताया कि कुछ ही देर में राक्षस बलि के लिए आने वाले हैं। बेहतर होगा कि आप रूप बदल कर कामाक्षी कें मंदिर में जा कर बैठ जाएं। उनको सारी पूजा झरोखे से करने को कहें।
हनुमान जी ने पहले तो मधु मक्खी का वेश धरा और मां कामाक्षी के मंदिर में घुस गये। हनुमान जी ने मां कामाक्षी को नमस्कार कर सफलता की कामना की और फिर पूछा- हे मां क्या आप वास्तव में श्री राम जी और लक्ष्मण जी की बलि चाहती हैं ?
हनुमान जी के इस प्रश्न पर मां कामाक्षी ने उत्तर दिया कि नहीं। मैं तो दुष्ट अहिरावण व महिरावण की बलि चाहती हूं। यह दोनों मेरे भक्त तो हैं पर अधर्मी और अत्याचारी भी हैं। आप अपने प्रयत्न करो, सफल रहोगे।
मंदिर में पांच दीप जल रहे थे। अलग-अलग दिशाओं और स्थान पर मां ने कहा यह दीप अहिरावण ने मेरी प्रसन्नता के लिए जलाये हैं जिस दिन ये एक साथ बुझा दिए जा सकेंगे, उसका अंत सुनिश्चित हो सकेगा।
इस बीच गाजे-बाजे का शोर सुनाई पड़ने लगा। अहिरावण, महिरावण बलि चढाने के लिए आ रहे थे। हनुमान जी ने अब मां कामाक्षी का रूप धरा। जब अहिरावण और महिरावण मंदिर में प्रवेश करने ही वाले थे कि हनुमान जी का महिला स्वर गूंजा।
हनुमान जी बोले- मैं कामाक्षी देवी हूं और आज मेरी पूजा झरोखे से करो। झरोखे से पूजा आरंभ हुई ढेर सारा चढावा मां कामाक्षी को झरोखे से चढाया जाने लगा। अंत में बंधक बलि के रूप में राम लक्ष्मण को भी उसी से डाला गया। दोनों बंधन में बेहोश थे।
हनुमान जी ने तुरंत उन्हें बंधन मुक्त किया। अब पाताल लोक से निकलने की बारी थी पर उससे पहले मां कामाक्षी के सामने अहिरावण महिरावण की बलि देकर उनकी इच्छा पूरी करना और दोनों राक्षसों को उनके किए की सज़ा देना शेष था।
अब हनुमान जी ने मकरध्वज को कहा कि वह अचेत अवस्था में लेटे हुए भगवान राम और लक्ष्मण का खास ख्याल रखे और उसके साथ मिलकर दोनों राक्षसों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।
पर यह युद्ध आसान न था। अहिरावण और महिरावण बडी मुश्किल से मरते तो फिर पाँच पाँच के रूप में जिदां हो जाते। इस विकट स्थिति में मकरध्वज ने बताया कि अहिरावण की एक पत्नी नागकन्या है।
अहिरावण उसे बलात हर लाया है। वह उसे पसंद नहीं करती पर मन मार के उसके साथ है, वह अहिरावण के राज जानती होगी। उससे उसकी मौत का उपाय पूछा जाये। आप उसके पास जाएं और सहायता मांगे।
मकरध्वज ने राक्षसों को युद्ध में उलझाये रखा और उधर हनुमान अहिरावण की पत्नी के पास पहुंचे। नागकन्या से उन्होंने कहा कि यदि तुम अहिरावण के मृत्यु का भेद बता दो तो हम उसे मारकर तुम्हें उसके चंगुल से मुक्ति दिला देंगे।


अहिरावण की पत्नी ने कहा- मेरा नाम चित्रसेना है। मैं भगवान विष्णु की भक्त हूं। मेरे रूप पर अहिरावण मर मिटा और मेरा अपहरण कर यहां कैद किये हुए है, पर मैं उसे नहीं चाहती। लेकिन मैं अहिरावण का भेद तभी बताउंगी जब मेरी इच्छा पूरी की जायेगी।
हनुमान जी ने अहिरावण की पत्नी नागकन्या चित्रसेना से पूछा कि आप अहिरावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बदले में क्या चाहती हैं ? आप मुझसे अपनी शर्त बताएं, मैं उसे जरूर मानूंगा।
चित्रसेना ने कहा- दुर्भाग्य से अहिरावण जैसा असुर मुझे हर लाया. इससे मेरा जीवन खराब हो गया. मैं अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहती हूं। आप अगर मेरा विवाह श्री राम से कराने का वचन दें तो मैं अहिरावण के वध का रहस्य बताऊंगी।
हनुमान जी सोच में पड़ गए. भगवान श्री राम तो एक पत्नी निष्ठ हैं। अपनी धर्म पत्नी देवी सीता को मुक्त कराने के लिए असुरों से युद्ध कर रहे हैं। वह किसी और से विवाह की बात तो कभी न स्वीकारेंगे। मैं कैसे वचन दे सकता हूं ?
फिर सोचने लगे कि यदि समय पर उचित निर्णय न लिया तो स्वामी के प्राण ही संकट में हैं. असमंजस की स्थिति में बेचैन हनुमानजी ने ऐसी राह निकाली कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
हनुमान जी बोले- तुम्हारी शर्त स्वीकार है पर हमारी भी एक शर्त है. यह विवाह तभी होगा जब तुम्हारे साथ भगवान राम जिस पलंग पर आसीन होंगे वह सही सलामत रहना चाहिए। यदि वह टूटा तो इसे अपशकुन मांगकर वचन से पीछे हट जाऊंगा।
जब महाकाय अहिरावण के बैठने से पलंग नहीं टूटता तो भला श्रीराम के बैठने से कैसे टूटेगा ! यह सोच कर चित्रसेना तैयार हो गयी। उसने अहिरावण समेत सभी राक्षसों के अंत का सारा भेद बता दिया.
चित्रसेना ने कहा- दोनों राक्षसों के बचपन की बात है. इन दोनों के कुछ शरारती राक्षस मित्रों ने कहीं से एक भ्रामरी को पकड़ लिया। मनोरंज के लिए वे उसे भ्रामरी को बार-बार काटों से छेड रहे थे।
भ्रामरी साधारण भ्रामरी न थी। वह भी बहुत मायावी थी किंतु किसी कारण वश वह पकड़ में आ गई थी। भ्रामरी की पीड़ा सुनकर अहिरावण और महिरावण को दया आ गई और अपने मित्रों से लड़ कर उसे छुड़ा दिया।
मायावी भ्रामरी का पति भी अपनी पत्नी की पीड़ा सुनकर आया था। अपनी पत्नी की मुक्ति से प्रसन्न होकर उस भौंरे ने वचन दिया था कि तुम्हारे उपकार का बदला हम सभी भ्रमर जाति मिलकर चुकाएंगे।
ये भौंरे अधिकतर उसके शयन कक्ष के पास रहते हैं। ये सब बड़ी भारी संख्या में हैं। दोनों राक्षसों को जब भी मारने का प्रयास हुआ है और ये मरने को हो जाते हैं तब भ्रमर उनके मुख में एक बूंद अमृत का डाल देते हैं।
उस अमृत के कारण ये दोनों राक्षस मरकर भी जिंदा हो जाते हैं। इनके कई-कई रूप उसी अमृत के कारण हैं। इन्हें जितनी बार फिर से जीवन दिया गया उनके उतने नए रूप बन गए हैं. इस लिए आपको पहले इन भंवरों को मारना होगा।
हनुमान जी रहस्य जानकर लौटे। मकरध्वज ने अहिरावण को युद्ध में उलझा रखा था। तो हनुमान जी ने भंवरों का खात्मा शुरू किया। वे आखिर हनुमान जी के सामने कहां तक टिकते।
जब सारे भ्रमर खत्म हो गए और केवल एक बचा तो वह हनुमान जी के चरणों में लोट गया। उसने हनुमान जी से प्राण रक्षा की याचना की। हनुमान जी पसीज गए। उन्होंने उसे क्षमा करते हुए एक काम सौंपा।
हनुमान जी बोले- मैं तुम्हें प्राण दान देता हूं पर इस शर्त पर कि तुम यहां से तुरंत चले जाओगे और अहिरावण की पत्नी के पलंग की पाटी में घुसकर जल्दी से जल्दी उसे पूरी तरह खोखला बना दोगे।


भंवरा तत्काल चित्रसेना के पलंग की पाटी में घुसने के लिए प्रस्थान कर गया। इधर अहिरावण और महिरावण को अपने चमत्कार के लुप्त होने से बहुत अचरज हुआ पर उन्होंने मायावी युद्ध जारी रखा।
भ्रमरों को हनुमान जी ने समाप्त कर दिया फिर भी हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों अहिरावण और महिरावण का अंत नहीं हो पा रहा था। यह देखकर हनुमान जी कुछ चिंतित हुए।
फिर उन्हें कामाक्षी देवी का वचन याद आया। देवी ने बताया था कि अहिरावण की सिद्धि है कि जब पांचो दीपकों एक साथ बुझेंगे तभी वे नए-नए रूप धारण करने में असमर्थ होंगे और उनका वध हो सकेगा।
हनुमान जी ने तत्काल पंचमुखी रूप धारण कर लिया। उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख।
उसके बाद हनुमान जी ने अपने पांचों मुख द्वारा एक साथ पांचों दीपक बुझा दिए। अब उनके बार बार पैदा होने और लंबे समय तक जिंदा रहने की सारी आशंकायें समाप्त हो गयीं थी। हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों शीघ्र ही दोनों राक्षस मारे गये।
इसके बाद उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर करने के उपाय किए। दोनो भाई होश में आ गए। चित्रसेना भी वहां आ गई थी। हनुमान जी ने कहा- प्रभो ! अब आप अहिरावण और महिरावण के छल और बंधन से मुक्त हुए।
पर इसके लिए हमें इस नागकन्या की सहायता लेनी पड़ी थी। अहिरावण इसे बल पूर्वक उठा लाया था। वह आपसे विवाह करना चाहती है। कृपया उससे विवाह कर अपने साथ ले चलें। इससे उसे भी मुक्ति मिलेगी।
श्री राम हनुमान जी की बात सुनकर चकराए। इससे पहले कि वह कुछ कह पाते हनुमान जी ने ही कह दिया- भगवन आप तो मुक्तिदाता हैं। अहिरावण को मारने का भेद इसी ने बताया है। इसके बिना हम उसे मारकर आपको बचाने में सफल न हो पाते।
कृपा निधान इसे भी मुक्ति मिलनी चाहिए। परंतु आप चिंता न करें। हम सबका जीवन बचाने वाले के प्रति बस इतना कीजिए कि आप बस इस पलंग पर बैठिए बाकी का काम मैं संपन्न करवाता हूं।
हनुमान जी इतनी तेजी से सारे कार्य करते जा रहे थे कि इससे श्री राम जी और लक्ष्मण जी दोनों चिंता में पड़ गये। वह कोई कदम उठाते कि तब तक हनुमान जी ने भगवान राम की बांह पकड़ ली।
हनुमान जी ने भावा वेश में प्रभु श्री राम की बांह पकड़कर चित्रसेना के उस सजे-धजे विशाल पलंग पर बिठा दिया। श्री राम कुछ समझ पाते कि तभी पलंग की खोखली पाटी चरमरा कर टूट गयी।
पलंग धराशायी हो गया। चित्रसेना भी जमीन पर आ गिरी। हनुमान जी हंस पड़े और फिर चित्रसेना से बोले- अब तुम्हारी शर्त तो पूरी हुई नहीं, इसलिए यह विवाह नहीं हो सकता। तुम मुक्त हो और हम तुम्हें तुम्हारे लोक भेजने का प्रबंध करते हैं।
चित्रसेना समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ है। उसने कहा कि उसके साथ छल हुआ है। मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक उनके सामने किसी के साथ छल करें यह तो बहुत अनुचित है। मैं हनुमान को श्राप दूंगी।
चित्रसेना हनुमान जी को श्राप देने ही जा हे रही थी कि श्री राम का सम्मोहन भंग हुआ। वह इस पूरे नाटक को समझ गये। उन्होंने चित्रसेना को समझाया- मैंने एक पत्नी धर्म से बंधे होने का संकल्प लिया है। इस लिए हनुमान जी को यह करना पड़ा। उन्हें क्षमा कर दो।
क्रुद्ध चित्रसेना तो उनसे विवाह की जिद पकड़े बैठी थी। श्री राम ने कहा- मैं जब द्वापर में श्री कृष्ण अवतार लूंगा तब तुम्हें सत्यभामा के रूप में अपनी पटरानी बनाउंगा। इससे वह मान गयी।
हनुमान जी ने चित्रसेना को उसके पिता के पास पहुंचा दिया. चित्रसेना को प्रभु ने अगले जन्म में पत्नी बनाने का वरदान दिया था। भगवान विष्णु की पत्नी बनने की चाह में उसने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया।
श्री राम और लक्ष्मण, मकरध्वज और हनुमान जी सहित वापस लंका में सुवेल पर्वत पर लौट आये। (स्कंद पुराण और आनंद रामायण के सारकांड की कथा

पंचमुखी हनुमान की कहानी – जानिए पंचमुखी क्यो हुए हनुमान? पंचमुखी हनुमान की कहानी – जानिए पंचमुखी क्यो हुए हनुमान? Reviewed by Shyam Dubey on March 18, 2020 Rating: 5

मेरे लिए आज भी थोड़ा सा वक्त खर्च करते हैं..... Love Shayari

March 17, 2020


मेरे लिए आज भी 
थोड़ा सा वक्त खर्च करते हैं 

वह फेसबुक पर आते ही
 मुझे सर्च करते हैं
🥰🥰


















Mere liye aaj bhi thoda sa 
Waqt kharch krte hain 😊

Wo Facebook par aate hi
Mujhe search karte hain 😍





Credit: Sonam
Type: Love Shayri



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लेकिन सबका प्यार पूरा नहीं हो पाता ..... Sad Shayari

March 17, 2020


प्यार तो सबको होता है 
लेकिन सब का प्यार पूरा नहीं हो पाता
☹️☹️☹️


















Pyaar to sabko hota hai
Lekin Sabka pyaar pura nahi
Ho paata
😥😥😥





Credit: Divya
Type: Sad Shayri



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बार-बार यूं रूठा ना करो..... Love Shayari

March 16, 2020


रूठा ना करो यूं 
बार-बार मेरी जान 

बेशक आंसू तुम्हारे निकलते हैं 
लेकिन दिल मेरा रोता है
🥰🥰🥰


















Rutha na karo yu
Bar bar meri jaan

Beshak aanshu tumhare nikaalte hain
Lekin dil mera rota hai
🥰🥰





Credit: Shyam
Type: Love Shayri



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क्यों महसूस नहीं होती उसे मेरी तकलीफ..... Sad Shayari

March 16, 2020


क्यों नहीं महसूस होती
 उसे मेरी यह तकलीफ

 जो कभी कहा करते थे
 अच्छी तरह से जानते हैं तुम्हें
☹️☹️☹️


















Kyu nahi mehsoos hoti 
Use meri ye takleef

Jo kabhi kaha karte the
Acchi tarah se jante hain tumhe
☹️☹️☹️





Credit: Soumya
Type: Sad Shayri



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वास्तु टिप्स for life full of happiness, money and good health 😍 myjokesadda

March 15, 2020
Ye kuch vastu tips hain jo sabhi vyakti agar dhyan de to unke ghar me khushi hi khushi hogi. Ummid karta hu ye bat apko acchi lgegi.

 Inhe apne parivar dosto ke sath share avashya kare. 
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भगवान श्री कृष्ण का दामोदर नाम क्यों पड़ा... पौराणिक कथाएं Myjokesadda

March 13, 2020
Bhagwan Shri Krishna Ka Damodar Nam Kyu Pada – पवित्र कार्तिक मास का एक नाम दामोदर मास भी है। ‘दाम’ कहते हैं रस्सी को और ‘उदर’ कहते हैं पेट को। इस महीने में माता यशोदा ने भगवान नन्द-नन्दन श्रीकृष्ण के पेट पर रस्सी बाँध कर उन्हें ऊखल से बाँधा था, अतः उनका एक नाम हुआ ‘दामोदर’।
भगवान और उनकी माता के बीच यह लीला कार्तिक के महीने में हुई थी, अतः उस लीला की याद में इस महीने को “दामोदर” भी कहते हैं।



बृज में सुबह-सुबह जब गोपियाँ दही मन्थन करतीं, तो उनका यही भाव होता कि नन्दलाल ये मक्खन – दही खाएं, हमारे कहने पर वो छलिया- नटखट नाचता और नन्हें-नन्हें हाथों से मक्खन को पकड़ता।
भक्तों की इच्छा को पूरा करने के लिये भगवान उनके यहाँ जाते किन्तु जब देखते कि दही-मक्खन तो उनकी पहुँच से दूर ऊपर छींके पर रखा है तो, अपने मित्रों के साथ उसको किसी प्रकार से लूटते।
गोपियां इससे आनन्दित तो होतीं किन्तु नंदनन्दन को देखने के लिये, किसी न किसी बहाने से यशोदा माता के यहाँ जातीं और शिकायत करतीं। माता यशोदा अपने लाल से यही कहतीं कि अरे कान्हा! अपने घर में इतन मक्खन-दही है, फिर तू बाहर क्यों जाता है?
एक दिन माता यशोदा भगवान को दूध पिला रहीं थीं तभी उन्हें याद आया कि रसोई में दूध चूल्हे पर चढ़ाया हुआ था, अब तक ऊबल गया होगा। माता ने लाल को गोद से उतारा और उबलते दूध को आग से उतारने के लिये लपकीं। श्रीकृष्ण ने रोष-लीला प्रकट की और मन ही मन बोलने लगे कि मेरा पेट अभी भरा नहीं और मैया मुझे छोड़कर रसोई में चली गईं।
बस फिर क्या था, भगवान ने सामने दही,घी,माखन रखे हुये मिट्टी के बर्तन को तोड़ दिया। जिससे सारे कमरे में दही बिखर गया, परन्तु इससे भी बालकृष्ण का गुस्सा शान्त नहीं हुआ। उन्होंने कमरे में रखे सभी दूध और दही की मटकियों को तोड़ डाला। इसके बाद छींके पर रखे हुये मक्खन व दही के मटकों को तोड़ने के लिये एक ओखली के ऊपर चढ़ गये।
उधर यशोदा मैय्या जब दूध संभाल कर मुड़ीं तो वह यह देख कर हैरान हो गयीं कि दरवाज़े में से दूध-दही-मक्खन बह रहा है। माता को देखकर श्रीकृष्ण ओखली से कूद कर सरपट भागे। अपने घर में माखन चोरी की श्रीकृष्ण की यह पहली लीला थी। माता यशोदा श्रीकृष्ण को पकड़ने के लिये उनके पीछे दौड़ीं।
मईया ने सोचा आज कन्हैया को सबक सिखाना ही होगा। अतः छड़ी उठाई और उनके पीछे-पीछे भागीं। यह निश्चित है कि सर्वशक्तिमान-अनन्त गुणों से विभूषित भगवान यदि अपने आप को न पकड़वायें तो कोई उनको नहीं पकड़ सकता। यदि वे अपने आप को न जनायें तो कोई उन्हें जान भी नहीं सकता। माता यशोदा का परिश्रम देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी चाल को थोड़ा धीमा किया।
माता ने उन्हें पकड़ लिया और वापिस नन्द-भवन में वहीं पर ले आयीं जहाँ ऊखल पर चढ़ कर भगवान बन्दरों को माखन बाँट रहे थे। सजा देने की भावना से माता यशोदा श्रीकृष्ण को ऊखल से बाँधने लगीं। जब रस्सी से बाँधने लगीं तो रस्सी दो ऊँगल छोटी पड़ गयी। माता रस्सी पर रस्सी जोड़ती जाती परन्तु भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य चमत्कारी लीला से हर बार रस्सी दो ऊँगल छोटी पड़ जाती। सारे गोकुल की रस्सियाँ आ गयीं किन्तु भगवान नहीं बंध पाये, रस्सी हमेशा दो ऊँगल छोटी रही।
भगवान ने अपनी इस लीला के माध्यम से हमें बताया कि वे छोटे से गोपाल के रूप में होते हुये भी अनन्त हैं।
अपनी वात्सल्य रस की भक्त माता यशोदा की इच्छा पूरी करने के लिये वे लीला पुरुषोत्तम जब बँधे तो पहली रस्सी से ही बँध गये, बाकी रस्सियों का ढेर यूँ ही पड़ा रहा। इस लीला के बाद से ही भगवान श्रीकृष्ण का एक नाम हो गया दामोदर।

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क्या मुझे रुला कर तुम खुश हो..... Sad Shayari in hindi

March 13, 2020


Ek baat puche
 Muskura kar jawab dena

 Kya Mujhe Rula Kar Tum khush ho? 
😥😥


















एक बात पूछूं 
 बस मुस्कुरा कर जवाब देना

 क्या मुझे रुला कर तुम खुश हो?
😥😥😥 





Credit: Sonam
Type: Sad Shayri in hindi



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आदत है मेरी...... Emotional Shayari

March 13, 2020


दिल में उतर जाने की आदत है मेरी
 सबसे अलग पहचान बनाने की आदत है मेरी

 जितना गहरा जख्म देता है कोई मुझे 
उतना ही मीठा मुस्कुराने की आदत है मेरी
😊😊😊


















Dil me utar jaane ki aadat 
Hai meri
Sabse alag pahchan banane ki
Adat hai meri

Jitna gehra zakhm deta hai 
Koi mujhe
Utna hi meetha muskurane ki
Aadat hai meri
😊😊😊





Credit: Shyam
Type: Emotional Shayri



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टूट कर चाहा था मैंने तुझे.... ☹️😥 Sad Shayri

March 11, 2020


टूट कर चाहा था मैंने तुझे
 पर तोड़ कर रख दिया तुमने मुझे
😭😭


















Tut kar chaha tha mene tujhe
Par tod kr rakh diya tumne
 mujhe
😭😭




Credit: Shiv
Type: Sad Shayri



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वह अक्सर निकल जाते हैं आंसू बनकर☹️☹️☹️ Sad Shayri

March 11, 2020


कोई मिल जाता है
 कहानी बनकर
 बस जाते हैं दिल में 
निशानी बनकर 
जिन्हें हम रखते हैं 
अपनी आंखों में वह 
अक्सर निकल जाते हैं
 आंसू बनकर
😭😭😭😭


















Koi mil jaata hai
Kahani bankar
Bas jaate hain dil me
Nishani bankar
Jinhe hum rakhte hain
Apni aankho me
Wo aksar nikal jaate hain
Aanshu bankar
😭😭😭





Credit: Shivani
Type: Sad Shayri



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